Friday, May 15, 2009

कमल के दादा....

आम तोर पे अगर मुझे नमाज़ के लिए देर हो जाये तो मुझे बड़ा अटपटा सा लगता हे या यु कहे के अच्छा नहीं लगता , लेकिन उस दिन मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा जबकि में नमाज़ के लिए काफी देर से मस्जिद पंहुचा था . हुआ यु के जब में नमाज़ के लिए जा रहा था अपने घर के पास वाली मस्जिद में (ईदगाह हिल) रस्ते के किनारे मुझे एक देहाती आदमी बेठा दिखाई दिया उसकी उम्र लगभग 70-75 साल की होगी , पूछने पे के यहाँ क्यों बेठे हो उसने सिर्फ यह कहा .. में कमल को दादा , मेरो मोड़ो कमल , में कमल को दादा , उसे इसके सिवा और कुछ याद नहीं था . मेने पूछा के कहा रहता हे तुम्हारा पोता तो उसने बताया ईदगाह पे घुग्गी में , अब ईदगाह हिल्स पे काफी सारी घुग्गी हे और उनसब में जाके कमल के बारे में पूछना, आसन काम न था . उस आदमी को ये भी नहीं पता था के उसका पोता करता क्या हे . मेने पूछा ' तुम पहले कभी आये हो उसके घर 'वो बोला 'परकी बरस आयो थो उजेलो में , घेदो अंधेरो में मोको कछु समझ न आये'मुझे अंदाजा हो गया के उम्र की वजह से उसकी याददाश्त कमज़ोर हो गई थी , एक तो उसे कुछ ठीक से याद न था उपर से अँधेरा होने की वजह से उसे रास्ते का भी अंदाजा न था खेर मेने उसकी मदद करने की ठानी , उसे अपनी बाइक पे बिठा के झुग्गी के पास ले गया , पर वहा कमल नाम का कोई लड़का नहीं रहता था , दूसरी तरफ की झुग्गी पे लेके गया वह भी कोई कमल न था , अब हम तीसरे झुग्गी एरिया की तरफ चले , वहा 4-5 लड़के एक घुग्गी के बहार बेठे थे मेने कमल का पूछा थो एक बोला में ही हु कमल अँधेरा होने की वजह से मेरे पीछे कोन बेठा हे वो लड़का नहीं पहचान पाया मेने उसे नज़दीक आने को कहा तो आते ही वो बोल पड़ा ' दद्दू केसों आये ' झट से उसने अपने दद्दू के पाव छुए , मुझे थोडा सुकून मिला के चलो कमल मिला तो, गले में केसरिया गमछा माथे पे बड़ा सा तिलक एक कला सा लड़का, आते ही उसकी नज़र सबसे पहले मेरे सर पे लगी टोपी पे पड़ी , उसने हिचकिचाते हुए पूछा के दद्दू मुझे कहा मिले ,मेने उसे सारी बात बताई , उसने मुझे बताया के यह उसके दादा हे उन्हें भूलने की बीमारी हे सीहोर के पास के एक गाव के रहने वाले हे , रौशनी में तो घर तक आजाते हे पर आज अँधेरा होने की वजह से शायद रास्ता भूल गए, थोडी देर में उस झुग्गी में से दो महिलाये भी निकल के आई और उस आदमी के पैर छुए .... दद्दू तो शायद भूल गए थे के में उन्हें यहाँ लाया था .. लेकिन बाकि सब लोग ने मुझे बहुत बहुत धन्यवाद कहा , अब मुझे याद आया के मुझे तो नमाज़ पड़ने जाना था , में वहा से सीधा मस्जिद आया , नमाज़ हो चुकी थी, लेकिन उस दिन न तो मुझे अटपटा लग रहा था और न ही बुरा ... क्यो की शायद किसी भटके हुए को उसकी मंजिल तक पोहचना किसी नमाज़ या पूजा से कम नहीं .

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