Friday, June 12, 2015

किसी ने मुझें समझा ही नहीं ...

क्या करू के किसी ने मुझे समझा ही नहीं
बचपन में थी मासूम और हिरनी की शरारत
तोडना चाहती थी सितारे किसी भी हद तक
पर क्या करू के किसी ने मुझे समझा ही नहीं

बातें करना चाँद से और सितारों को पकड़ना
हर छोटी सी बात पे पूरे घर से था लड़ना
लड़ना झगड़ना और सुबह को मान जाना
साडी हथेलियों पे कई ख्वाबो को सजाना
बाते थी अलग सोच ज़माने से जुदा
पर क्या करू के किसी ने मुझे समझा ही नहीं

फिर जो आया ज़माना नया सावन लेकर
हर शख्स था दीवाना मास मुझे देख कर
जो भी आया ज़िन्दगी में बस इक मतलब लेकर
मेने चाहां था उन्हे अपने अरमां देकर
बस ये किस्मत ने न चाहां के उन्हें अपना न सकी
पर क्या करू के किसी ने मुझे समझा ही नहीं

जब भी इस दिल में कोई प्यार का तूफान लाया
हर बार मुझे अपनी मोहब्बत के अंजाम पे रोना आया
दिल मेरा टूटा था कई बार मेरे अपनों से ही
पर क्या करू के किसी ने मुझे समझा ही नहीं

शम्मा जलती रहेगी परवाना कभी तो आएगा
अब मेरी जिद्द के आगे मुकद्दर भी झुक जायेगा
जीतूंगी इश्क की बाज़ी ज़माने से लड़ कर
कोई आएगा जो चाहेगा मेरा अपना बन कर
वक़्त चाहे गुज़र जाये जितना भी सही
पर क्या करू के किसी ने मुझे समझा ही नहीं