Tuesday, November 6, 2018

" अब भरोसा नहीं "

ऐक गुलशन मे खिलते थे वो चार गुल 
रंग  जिनके जुदा ओर जुदा जिनकी बु 
फिर भी मेह्काते गुलशन को मिलके वो यूँ
जेसे इक डाल के ही थे चारो वो गुल

अब ये क्या हो गया कुछ समझ ना सके
एक दूजे पर किसी को अब भरोसा नही....

रोज़ सुबह मिल जुल कर चारों गीत सुहाने गाते थे
ऐक अगर मुरझाता था बाकी भी मुरझा जाते थे
ओस की बूंदों  को भी चारो मिलकर बांटा करते थे
तेज़ धूप मे इक दूजे पर मिलकर साया करते थे

अब ये क्या हो गया कुछ समझ ना सके
एक दूजे पर किसी को अब भरोसा नही....

किसी शरारती की हरकत से, ऐक कोई कट जाता था
रंग बदलते थे बाकी के, आँखों में पानी आता था
कटी हुई डाली को बाकी , मिल कर यूं सेहलाते थे
जैसे भाई बहन इक दूजे को , बातों से बेहलाते है

अब ये क्या हो गया कुछ समझ न सके
एक दूजे पर किसी को अब भरोसा नही....

बिखरे हुये बाग़ को आज फिर से चमन बनाना हे 
चडी हुइ ग़ुबार को इसके उपर से हटाना हे
फिर से मिल जुल कर सबकों को गीत सुहाने गाना हे
बुलबुल मेना तितली  को वापस फिर बुलना हे
कोइ नहीं आयेगा आगे फुलो को ही आना है
अपने इस प्यारे गुलशन को  मिलके फिर सजाना हे

जो ये ना सामझ सके अब भी तो.........

राख और खाक़ भी गुलशन की कही मिलेगी नही
क्योंकि...एक दूजे पर किसी को अब भरोसा नही.