Sunday, May 3, 2009

यह प्यास हे बड़ी ......

कई दिनों से समाचार पत्रों में पड़ रहा था के पक्षियों के लिए पानी रखना चाहिए, वो भी प्यासे होते हे , वगेरा वगेरा , मेरे एक दोस्त ने भी sms के द्वारा मुझे पक्षियों के लिए पानी रखने की सलाह दी, लेकिन हम इंसान दुसरे इंसानों की फ़िक्र नही करते तो फिर पक्षियों के बारे में केसे सोच सकते हे... मेने भी इस बात को कोई ख़ास तवज्जो नही दी।
लेकिन अभी चार दिन पहले जो घटना मेरे साथ घटी उसने मेरी आत्मा को ही हिला दिया, हुआ यु के में अपने ऑफिस में बेठा था, दो पहर के २ बज रहे थे उस दिन तापमान शायद 44 डिग्री था , गर्मी की वजह से इंसानों का हाल बुरा था तो फिर जानवरों की कोन सोचे । तभी अचानक बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पे भीड़ जमा होके कुछ देखने लगी मेने देखा तो में भी भीड़ में शामिल हो गया , वहा कही से एक जंगली कबूतर आगया था उसे शायद रास्ता नही मिल प् रहा था इसलिए इधर उधर उड़ रहा था , वो जिस तरफ़ भी जाता लोग उसे डरा के भगा देते ,
जंगली कबूतर के बारे में कहा जाता हे के वो आसानी से पकडाई में नही आता , थोडी देर इधर उधर उड़ने के बाद वो शायद थक गया था... मुझे उसकी सूरत देखके न जाने क्या लगा के मेने उसे पुचकारा वो मेरी तरफ़ देखने लगा में धीरे धीरे उसकी तरफ़ बड़ा उसने डर की वजह से पीछे कदम बढाये लेकिन पीछे दिवार होने की वजह से वो रुक गया , उसमे शायद और उड़ने की ताकत नही थी , में उसके पकड़ने के लिए जेसे ही झुका तभी पीछे से किसी ने कहा ...जंगली कबूतर को पकड़ना अशुभ होता हे .... एक पल के लिए में रुका लेकिन फ़िर मेने हिम्मत करके उसे पकड़ लिया , उसका शरीर बहुत गरम हो रहा था , मेने उसे पुचकारा तो ऐसा लगा जेसे शायद ये प्यासा हे , मेने एक मग में पानी भर के उसे दिया , में शायद कभी सोच भी नही सकता था के एक पक्षी इतना पानी पि सकता हे और वो भी इतनी तेज़ , उसकी साँस फूल रही थी में उसे अपने ऑफिस के अन्दर ले आया और एक कोने में बेठा दिया , मेने उसे फिर से पानी दिया इसबार उसने थोड़ा कम पिया , मेने उसे बिस्कुट भी खिलाना चाहा पर उसने बहुत थोड़ा सा खाया , बिस्कुट के ज़यादा उसे पानी में दिल्चस्बी थी थोडी थोडी देर में वे पानी में अपनी चोच मरता था , उसके रंग और गठे हुए शरीर की वजह से मेने उसका नाम युसूफ पठान रखा था (IPL सीरीज़ में युसूफ पठान मेरा सबसे पसंदीदा खिलाड़ी हे), में उसे बुलाता था तो वो मेरी तरफ़ देखता था शायद मुझे पहचानने लगा था । युसूफ पठान मेरे ऑफिस में तीन घंटे तक रुका , अब उसकी हालत पहले से ठीक थी और वो भी शायद जाना चाहता था , मेने एक बार फिर उसको पानी पिलाया और अपने हाथो में पकड़ के बिल्डिंग के बहार लेके आया बहार आते ही उसने पर फड फडआना शुरू कर दिया , जेसे ही मेने अपनी पकड़ ढीली की उसने उड़ान भर दी ... वेसे जाते जाते युसूफ पठान ने Thank you नही बोला , लेकिन उसकी उड़ान ही मेरे लिए किसी Thank you से कम न थी।
दुसरे ही दिन मेने मिटटी के दो कुल्हड़ ख़रीदे एक ऑफिस के बहार लटकाया दूसरा अपने घर की गेलरी में , क्या पता अगली बार कोई ...... "धोनी" आजाये , आखिर ......... यह प्यास हे बड़ी

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