ऐक गुलशन मे खिलते थे जो चार गुल
रंग जिंनके जुदा ओर जुदा जिनकी बु
फिर भी मेह्काते गुलशन को मिलके वो यु
जेसे इक पेड के हि थे चारो वो गुल
फिर ये क्या हो गया कुछ समझ ना सके
अब किसी को किसी पर भरोसा नही....
रोज़ सुबह मिल जुल कर चारो गीत सुहाने गाते थे
ऐक अगर मुरझाता था बाकी भी मुरझा जाते थे
शबनम की बुन्दो को भी चारो मिलकर बांटा करते थे
तेज़ धूप मे इक दूजे पर मिलकर छाया करते थे
फिर ये क्या हो गया कुछ समझ ना सके
अब किसी को किसी पर भरोसा नही..........
किसी शरारती की हरकत से
ऐक कोई कट जाता था
रंग बदल जाते बाकी के
आंखौ मे आंसु आता था
कटी हुई डाली को बाकी
मिलके यु सेहलाते थे
बच्चे अपनी मा को जेसे
बांतो से बेहलाते है
फिर ये क्या हो गया कुछ समझ न सके
अब किसी को किसी पर भरोसा नही.......
आज गुलशन को फिर गुलशन बनाना हे
चडी हुइ गुबार को उसके उपर से हटाना हे
फिर से मिल जुल कर उनको गीत सुहाना गानाहे
बुलबुल मेना तितलियो को वापस फिर बुलना ह
कोइ नहीं आयेगा आगे फुलो को ही आना है
अपने प्यरे गुलशन को मिलके फिर सजाना हे
जो ये ना सामझ सके अब भी तो.........
फिर ये क्या हो गया कुछ समाझ न सके
अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं........
Wednesday, September 17, 2008
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